Thursday, 29 December 2011

५० सालों में अपनी राह भटक चुका है भोजपुरी सिनेमा


५० सालों में अपनी राह भटक चुका है भोजपुरी सिनेमा



आज तो भोजपुरी सिनेमा के नाम पर ज्यादातर लोग भोजपुरिया लोगो से भद्दा मज़ाक कर रहे हैं। भोजपुरी फिल्म आज भारत से बाहर जा रहा है, पर सोचने वाली बात यहाँ है कि क्या हम भोजपुरी परिपेक्ष्य के लोग भोजपुरी फिल्म में सिंगापुर, बेंकोक आदि जगह देखने आते है ? नहीं, बिलकुल नहीं। अरे यह सब जगह देखनी होती तो क्या हिंदी फ़िल्में कम पड़ गयी हैं ? आप हमें ऐसा क्या दिखा देंगे जो हम हिंदी फिल्मो में नहीं देख सकते ? माफ़ करें पर ऐसे मनोरम दृश्य जो हिंदी फ़िल्में हमें दिखा देंगी, उसके आस पास भी आप फटक नहीं पायेंगे।
सुना था कि जब "गंगा मय्या तोहे पियरी चढैबो" के गाने शुरू में बजा करते थे तो हर श्रोता उन गानों के भावनाओं से जुड़ जाता था। गानों के शब्द में इतनी ताकत हुआ करती थी कि आदमी के आखो से आसूं भी निकल आते थे। पहले यहाँ बातें सुन के तो मुझे भी यकीन नहीं हुआ पर जब मैंने यह गाने खुद सुने तो लगा कि नहीं, यहाँ बातें सच है, बिलकुल सच। नाजिर हुसैन साहब, शाहाबादी जी जैसे लोग जुनूनी थे, इन्हें पैसे नहीं कमाने थे, इन्हें पहचान कायन करनी थी, अपनी, आपकी और हम सब भोजपुरिया लोगों की। पर दुखद बात यह है कि उनकी इन कोशिशों को हम नकार चुके हैं।
सच्चाई तो यह है कि हमें पता ही नहीं है हमें क्या बनाना है(यहाँ हम पैसे बनाने की बात नहीं करेंगे), कथा-पटकथा कामचलाऊ, गाने चोरी किये हुए, दो आयटम डांसर और द्विअर्थी शब्द। इन सबको मिला दीजिये, कुछ ना कुछ तो बन ही जाएगा। पटकथा जो फिल्म की जान होती है, उसपर तो कोई मेहनत करने को तैयार ही नहीं है। आजकल फिल्म की जान तो आयटम डांसर हो गयी है, पटकथा फायनल हो या ना हो, फिल्म में आयटम सांग की संख्या और आयटम डांसर जरुर फायनल रहती हैं।
भोजपुरी सिनेमा का प्रारूप कई मायनों में पिछले १० सालों में बहुत बदला है और यह अब भी लगातार बदल रहा है, दुःख है तो इस बात का कि हमारी जो बदलती सोच है वह काफी निम्न स्तर की होती जा रही है। हम अब भोजपुरी के भविष्य के बारे में सोच ही नहीं रहे हैं, बस अपने भविष्य के बारे में सोच रहे हैं। और हमारा भोजपुरी सिनेमा इस दौरान बहुत ही पीछे चला गया है। और इसके सुधार के लिए हम कुछ भी नहीं कर रहे हैं, कुछ भी नहीं। पिछले ५० साल से हम "गंगा मय्या.." जैसे पुराने फिल्मों को ही याद कर रहे हैं, क्योंकि हमारे पास आज की कोई ऐसी फिल्म ही नहीं जो इसे टक्कर दे सके। १९६२ में भोजपुरी सिनेमा में कलाकार होते थे, आज हमारे यहाँ सिर्फ सुपरस्टार होते हैं, पहले हमारे पास कथा-पटकथा होते थे, आज हमारे पास सिर्फ बेहूदा सीन्स होते हैं, पहले हमारे पास दिल को छू लेने वाले गाने होते थे, आज हमारे पास सिर्फ आयटम डांसर होती हैं। और सवाल बस यही रह जाता है, किस दिन हमारे निर्माता इसके लिए कमर कसेंगे कि बस अब बहुत हो गया, अब हम अपने आलोचकों को करारा जवाब देंगे। हम सब इसी दिन का इंतज़ार कर रहे हैं, बस ऐसा ना हो कि कहीं हमारे निर्माताओं को यह सोचने में बहुत देर ना हो जाए।



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