Saturday, 31 December 2011

INTERVIEW WITH SINGER VIVEK PANDEY



Why have you chosen the field of singing for yourself?

• I have seen my father singing since childhood and started learning classical from him. But he   was not a professional singer. He plays flute beautifully and I am really proud to be his son. 

• What are various courses that you have done?

• I have done MA classical from Mahatma Gandhi Kashi Vidhyapeeth in Varanasi.

• How you got the opportunity to sing for this album? Which song have you sung?

• I started working with stage shows and then worked for DD and ETV Channel.

I did my first album with Road2tinselville “Maiya Ka Saneswa” and currently I have performed in UP Mahotsav with gazal and bhajans.
• Who is your favourite singer?

• I love listening gazal and bhajans personally so my favourite singers are Hariharan and Anup Jalota. 

• What are your experience about bhojpuri songs and albums? 

• This was the first time I sang in Bhojpuri language. I like traditioanal songs in Bhojpuri and not the current filmi style ones.

• Which are those albums you have sung for? 

• I have sung in Maal Baa Dehati, Chal Dela Kanwar Utha key and Maiya Ka Saneswa.
• What are your future plans about making your way to Mumbai for singing? 

• I have no plans to go their in search of work but instead if I get an opportunity I would like to go then.

• What would you like to say for the young talents willing to enter this field?

• Well there is tough competition and lack of platform and opportunities so I think an another option should be there for your livelihood also and a financial support should be there.

Need Fresh Faces For A Soap TVC

We Require Fresh Attractive Models To Act In A TV Commercial Of A Soap Male , Female And A Kid


Success Story



Name: Smriti Mishra
Smriti Mishra singer of upcoming album " Maal baa Dehati" belongs to Varanasi city of U.P. Smriti got the aspirations for singing since her childhood from her family. She has got a highly learned background in the field of music currently doing her Phd from Bhatkandey Sangeet Vidhyalay , Lucknow. Road2tinselville recognized her talent and offered her a chance to sing for the album

Auditions for 440bholtage upcoming serial




440bholtage  luking for some fresh faces for its upcoming TV serial "SAHAAS & PARCHIYAAN" , Candidates, who are interested send there portfolio 440highbholtage@gmail.com our helpline no is +91-9506080000. 

नये साल की शुभकामनायें









"४४० भोलटेज टीम के तरफ ‌से रउरा सभी लोगन के नये साल की शुभकामना, रउरा लोगन के इ साल मंगलमय हो ‌‍" 

संसद में उठल भोजपुरी के बाति


संसद में उठल भोजपुरी के बाति

हाल में समापन भइल संसद के शीतकालीन सत्र में बियफे का दिने भाजपा सांसद शत्रुघ्न सिन्हा भोजपुरी के संविधान के आठवीं अनुसूची में जल्दी से शामिल करे के माँग उठवलें. आपन बाति कहत घरी शत्रुघ्न सिन्हा हालांकि एह गंभीर माँग के लालू का साथे जोड़ के मजाक के विषय बना दिहलन. कहलन कि लालू के राष्ट्रीय व्यक्तित्व घोषित कर दिहल जाव. एह बात पर सदन में ठहाका त गूंजल बाकिर भोजपुरी के बात मीडिया में ओह तरे ना आ पावल जइसे आवल चाहत रहे. मीडिया के ध्यान लालू वाला हिस्सा पर अधिका गइल आ भोजपुरी के बाति पर कम. एह बाति के जतना रेघरियावल जाव ऊ कम रही कि शत्रुघ्न सिंन्हा मुद्दा त बढ़िया उठवलन बाकिर ओकरा के लालू से जोड़ के लबारी में बदलि दिहलन. मीडियो के नजर एह छिछले बाति पर पड़ल आ असल मुद्दा के अनदेखी हो गइल. हद त तब हो गइल जब शत्रुघ्न सिन्हा कहलन कि भोजपुरी के संवैधानिक मान्यता आ लालू के राष्ट्रीय व्यक्तित्व घोषित करे के काम साथे साथ कइल जाव !
हमरा बुझात नइखे कि एह काम खातिर शत्रुघ्न सिंहा के बधाई दीं कि उनुकर आलोचना करीं. रउरो सोचीं का कहल जाव ?

Thursday, 29 December 2011

रवि किशन - बुरा रहा २०११


      रवि किशन - बुरा रहा २०११


साल २०११ भोजपुरी फिल्म अभिनेता रविकिशन के लिए बुरा साबित हुआ। २६ जनवरी को रिलीज हुई उनकी फिल्म रामपुर के लक्ष्मण ने छुट्टी के चलते जहां बेहतरीन ओपनिंग ली थी, वही दुसरे ही दिन फिल्म बॉक्स ऑफिस पर धडाम से गिर पड़ी। ८-९ महीनों के इंतज़ार के बाद उनकी अगली फिल्म आई सितम्बर ९ को "संतान" जिसे काफी सराहना मिली परन्तु उतने दर्शक इस फिल्म को नहीं मिले। इसके अगले ही हफ्ते आई इनकी फिल्म "एक और फौलाद" और यह फिल्म भी दर्शकों को लुभाने में नाकामयाब रही। निर्माताओं और वितरकों के विवाद में फ़सी हुई "पियवा बड़ा सतावेला" को जैसे तैसे छठ पर रिलीज कर दिया गया जिसका असर फिल्म के कलेक्शन पर दिखा और फिल्म औंधे मुंह गिर पड़ी। शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास पर बनी रवि किशन की अगली भोजपुरी फिल्म "हमार देवदास" बॉक्स आफिस पर कोई जलवा नहीं दिखा सकी। लगातार असफलता के साथ साथ रवि किशन को एक और झटका सहना पडा जब १० सितम्बर को उनकी नौकरानी ने उनके फ्लैट से कूद कर खुदखुशी कर ली। खैर, हम आशा करते हैं कि अगला साल उनके लिए कामयाबी भरा हो और वह इस साल की असफलताओं को भूलकर वापस अपने फ़ार्म हासिल कर पाएं।
Source - News Agency



भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री - पब्लिसिटी के प्रति उदासीनता


भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री पिछले पाच सालों में काफी आगे बढ़ चुका है। हम आधुनिक टेक्नालाजी का प्रयोग कर रहे हैं, जम कर ग्राफिक्स का फ़ायदा उठा रहे हैं। हर किसी के दिमाग में हिंदी फिल्मो से मुकाबला करने की बात चल रही है। पर आज भी कुछ चीज़ें हैं, जोकि भोजपुरी सिनेमा को सीमित रखे हुए है। उन चीजों में बहुत ख़ास महत्त्व है पब्लिसिटी का, फिल्मो के प्रचार का। फिल्म बनाना एक टीम वर्क है, हर विभाग को अपना काम पूरी जिम्मेदारी से करना होता है। फिल्म के हर पक्ष का सही होना बहुत जरूरी होता है क्योंकि फिल्म की एक कमी भी उसे डुबाने के लिए काफी होता है। और आज के समय में, जब फिल्मो की लागत और उसके प्रचार के लागत को बराबर अहमियत देनी चाहिए, भोजपुरी सिनेमा में ऐसा कुछ चलन आया ही नहीं है।
वर्तमान में हम भोजपुरी फिल्मों के क्वालिटी पर काफी बहस सुन रहे हैं। बहुत से लोगों का कहना है की फलां फिल्म साफ़ होते हुए भी सिनेमाघरों में सिर्फ ३-४ दिन ही टिक पाई। पर वही लोग इस बात का ध्यान नहीं देते की कितने लोगों को पता था कि वह फिल्म रिलीज हो रही है, उसमें क्या खासियत है, कैसे गाने हैं। आज जब कि हम हिंदी फिल्म भी चुन-चुन के देखते हैं(जिनका बहुत अच्छे तरीके से प्रचार होता है), तो हम यह कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि बिना किसी प्रचार के, बिना धूम धडाके के फिल्म को रिलीज कर के अपने पैसे भी निकाल लेंगे ? फिल्म का अच्छा होना बहुत ही जरूरी है, पर उन अच्छाइयों का प्रचार होना भी उतना ही जरूरी है, नहीं तो फिल्में ऐसे ही आती और जाती रहेंगी।

५० सालों में अपनी राह भटक चुका है भोजपुरी सिनेमा


५० सालों में अपनी राह भटक चुका है भोजपुरी सिनेमा



आज तो भोजपुरी सिनेमा के नाम पर ज्यादातर लोग भोजपुरिया लोगो से भद्दा मज़ाक कर रहे हैं। भोजपुरी फिल्म आज भारत से बाहर जा रहा है, पर सोचने वाली बात यहाँ है कि क्या हम भोजपुरी परिपेक्ष्य के लोग भोजपुरी फिल्म में सिंगापुर, बेंकोक आदि जगह देखने आते है ? नहीं, बिलकुल नहीं। अरे यह सब जगह देखनी होती तो क्या हिंदी फ़िल्में कम पड़ गयी हैं ? आप हमें ऐसा क्या दिखा देंगे जो हम हिंदी फिल्मो में नहीं देख सकते ? माफ़ करें पर ऐसे मनोरम दृश्य जो हिंदी फ़िल्में हमें दिखा देंगी, उसके आस पास भी आप फटक नहीं पायेंगे।
सुना था कि जब "गंगा मय्या तोहे पियरी चढैबो" के गाने शुरू में बजा करते थे तो हर श्रोता उन गानों के भावनाओं से जुड़ जाता था। गानों के शब्द में इतनी ताकत हुआ करती थी कि आदमी के आखो से आसूं भी निकल आते थे। पहले यहाँ बातें सुन के तो मुझे भी यकीन नहीं हुआ पर जब मैंने यह गाने खुद सुने तो लगा कि नहीं, यहाँ बातें सच है, बिलकुल सच। नाजिर हुसैन साहब, शाहाबादी जी जैसे लोग जुनूनी थे, इन्हें पैसे नहीं कमाने थे, इन्हें पहचान कायन करनी थी, अपनी, आपकी और हम सब भोजपुरिया लोगों की। पर दुखद बात यह है कि उनकी इन कोशिशों को हम नकार चुके हैं।
सच्चाई तो यह है कि हमें पता ही नहीं है हमें क्या बनाना है(यहाँ हम पैसे बनाने की बात नहीं करेंगे), कथा-पटकथा कामचलाऊ, गाने चोरी किये हुए, दो आयटम डांसर और द्विअर्थी शब्द। इन सबको मिला दीजिये, कुछ ना कुछ तो बन ही जाएगा। पटकथा जो फिल्म की जान होती है, उसपर तो कोई मेहनत करने को तैयार ही नहीं है। आजकल फिल्म की जान तो आयटम डांसर हो गयी है, पटकथा फायनल हो या ना हो, फिल्म में आयटम सांग की संख्या और आयटम डांसर जरुर फायनल रहती हैं।
भोजपुरी सिनेमा का प्रारूप कई मायनों में पिछले १० सालों में बहुत बदला है और यह अब भी लगातार बदल रहा है, दुःख है तो इस बात का कि हमारी जो बदलती सोच है वह काफी निम्न स्तर की होती जा रही है। हम अब भोजपुरी के भविष्य के बारे में सोच ही नहीं रहे हैं, बस अपने भविष्य के बारे में सोच रहे हैं। और हमारा भोजपुरी सिनेमा इस दौरान बहुत ही पीछे चला गया है। और इसके सुधार के लिए हम कुछ भी नहीं कर रहे हैं, कुछ भी नहीं। पिछले ५० साल से हम "गंगा मय्या.." जैसे पुराने फिल्मों को ही याद कर रहे हैं, क्योंकि हमारे पास आज की कोई ऐसी फिल्म ही नहीं जो इसे टक्कर दे सके। १९६२ में भोजपुरी सिनेमा में कलाकार होते थे, आज हमारे यहाँ सिर्फ सुपरस्टार होते हैं, पहले हमारे पास कथा-पटकथा होते थे, आज हमारे पास सिर्फ बेहूदा सीन्स होते हैं, पहले हमारे पास दिल को छू लेने वाले गाने होते थे, आज हमारे पास सिर्फ आयटम डांसर होती हैं। और सवाल बस यही रह जाता है, किस दिन हमारे निर्माता इसके लिए कमर कसेंगे कि बस अब बहुत हो गया, अब हम अपने आलोचकों को करारा जवाब देंगे। हम सब इसी दिन का इंतज़ार कर रहे हैं, बस ऐसा ना हो कि कहीं हमारे निर्माताओं को यह सोचने में बहुत देर ना हो जाए।




क्या फ़िल्मों के पोस्टरों की कोइ थीम होनी चाहिये ?




"एक्शन वाला पोस्टर, रोमांस वाला पोस्टर" - आज के सिनेमा इंडस्ट्री में ये में यह लाइन काफ़ी आम हो चुकी है। और भोजपुरी फ़िल्म इंडस्ट्री भी इससे अछूती नहीं रही है। फ़िल्म के पोस्टरों को अब दो श्रेणीयों में बाँट दिया गया है। एक पोस्टर है जिसमें एक्शन की भरमार हो, खुन खराबा, कट्टा, तोप सब कुछ हो, और दूसरा है रोमांस वाला पोस्टर, जिसमें हिरो अपने हिरोइन के करीब हो, और साथ में एक आयटम डांसर हो। अब फ़िल्मों के पोस्टरों को फ़िल्म के नाम से, फ़िल्म के थीम से कोइ लेना देना नही रह गया है।
मेरा मानना है कि फ़िल्म के पोस्टर फ़िल्म के बारे में बहुत कुछ कह जाते हैं,उन्हें देखते ही यह दर्शक यह भाँप लेता है कि फ़िल्म छात्रों की शिक्षा को ध्यान में रखकर बनाइ गई है। "दबंग" फ़िल्म का आयटम साँग "मुन्नी बदनाम हुइ" काफ़ी प्रसिद्ध हुआ पर इस फ़िल्म के पोस्टरों पर हमें सलमान खान ही दिखाइ दिये वो भी उस रूप में जिसे देखते ही लोगों को दबंगई का अहसास हो जाये। पोस्टर फ़िल्म का ही एक आयना होता है जो ये बताता है कि फ़िल्म किस चीज़ को केन्द्रित कर के बनाइ गई है। पर शायद अब यह बात लागू होती है। अब पोस्टर फ़िल्म के कलाकारों को दिखाने के लिये बनाया जाता है, फ़िल्म की थीम दिखे ना दिखे।
फ़िल्म का टाइटल हटा कर अगर हम दर्शकों को दिखायें तो इक्का दुक्का पोस्टरों को छोड़ दें तो शायद ही कोइ दर्शक फ़िल्म का नाम बता सकता है। जबकि हम हिन्दी फ़िल्मों के साथ यह करें तो दर्शकों को शायद ही फ़िल्म पहचानने में कोइ दिक्कत हो। इसका प्रमुख कारण यही है कि हम फ़िल्म के पोस्टरों के उपर खास ध्यान नही देते। यहाँ ध्यान देने का मतलब यह नही है कि हम पोस्टरों के डिजाइन पर ध्यान नहीं देते, इसका मतलब यह है कि हम फ़िल्म के थीम को पोस्टर पर दिखाने पर ध्यान नही देते।
जिस तरह से लगातार फ़िल्मों के पोस्टर दोहराव के शिकार बन रहे हैं, उस गति से तो लगता है कि वह दिन दूर नहीं जब फ़िल्म का नाम होगा "हे गंगा मय्या" और पोस्टर में उठापटक, खून खराबा और आयटम डांसर ही दिखाइ देंगी। फ़िल्म के हर विभाग को उचित समय दे कर ही अच्छी फ़िल्म बनाइ जा सकती है और दुखद बात यह है कि वर्तमान में पोस्टर के ऊपर कोइ खास समय नहीं दिया जा रहा है।
वैसे, इन सब का कारण यह भी हो सकता है कि जब फ़िल्में ही दोहराव का शिकार बन रही हैं तो फ़िल्म के पोस्टर की बात बेइमानी सी लगती है। आशा है कि हमारे निर्माता-निर्देशक इन बातों पर आगे ध्यान देंगे और आगे ऐसे पोस्टर और फ़िल्म के साथ आएंगे जो दर्शकों को सालों बाद भी याद रहे।


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Wednesday, 28 December 2011


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